देश के सर्वसमावेशी विकास के लिए जातीय व्यवस्था खत्म करने पर संपत्ति का समान वितरण आसान हो जाएगा। उसके लिए सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की थोथी बातें करने की बजाय समता, स्वतंत्रता, बंधुता और सामाजिक न्याय पर आधारित आंबेडकर के राष्ट्रवाद पर विचार किया तो यह संभव है।
राष्ट्रवाद को लेकर फिलहाल गर्मागर्म बहस चल रही है। एक समूह हिंदू संस्कृति खासतौर पर ब्राह्मणवादी हिंदू राष्ट्रवाद का समर्थन करता है, जबकि दूसरा समूह राष्ट्रवाद को समानता, लोकतंत्र, स्वतंत्रता और समान नागरिकता के दृष्टिकोण से देखता है। यह दृष्टिकोण संविधान में भी निहित है। हिंदू राष्ट्रवाद पर भरोसा करने वाले बहुत आक्रमक हो गए हैं। आंबेडकर मानते थे कि राष्ट्रीयता यह सामाजिक अहसास है। वह एकजुटता व एकता की सामूहिक भावना है। यही वजह है कि उन्होंने समता, स्वतंत्रता, बंधुता और सामाजिक न्याय इन चार मूल तत्वों के आधार पर संविधान में राष्ट्रवाद का निर्माण किया।
आंबेडकर का स्पष्ट मत था कि जातीय व्यवस्था देशविरोधी है और राष्ट्रीयता के लिए ठीक नहीं है। हिंदू राष्ट्रवाद की अभिव्यक्ति राजा राममोहन राय, दयानंद सरस्वती, अरविंद घोष, विवेकानंद और लोकमान्य तिलक के लेखन में हुई है। हिंदू महासभा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने इसी विचार को आगे बढ़ाया है। इन सबका विचार भिन्न था, लेकिन हिंदू धर्म और कुछ को छोड़ दें तो जातीय व्यवस्था को इन्होंने राष्ट्रवाद का आधार माना। हालांकि लोकतंत्र और समानता आधारित राष्ट्रवाद का विचार 1900 से शुरू हुआ। महात्मा फुले, पेरियार, नारायण गुरु, अच्युतानंद और मंगू राम ने आगे बढ़ाया। आंबेडकर यह दृष्टिकोण देने वाले सर्वोच्च प्रतिनिधि हैं। उनके विचार से समानता, स्वतंत्रता और लोकतंत्र जैसे मूल्य ही राष्ट्रवाद के स्तंभ हैं।
राष्ट्रवाद की आंबेडकर की अवधारणा के मुताबिक यह एकता की भावना है। इसलिए हम सब एक-दूसरे के भाई और रिश्तेदार हैं। इसमें लोगों के बीच का संवाद, समान भागीदारी और जीवन के विविध पहलूअों में योगदान शामिल है। वे कहते थे कि समान भाषा, वंश, भूभाग आदि से राष्ट्र निर्मित नहीं होता। राष्ट्र यानी लोगों को बंधुता में बांधने वाला आध्यात्मिक अस्तित्व।
उनका मानना था कि जातीय व्यवस्था असमानता, परतंत्रता जैसे तत्वों पर आधारित है। यह निम्न वर्गों तथा महिलाओं पर सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, राजकीय और शैक्षणिक पाबंदिया लगाने वाली समाज व्यवस्था है। इसलिए राष्ट्रीयता को साकार करना हो तो आर्थिक व सामाजिक समानता व स्वतंत्रता को प्रोत्साहन देना होगा।गरीबी दूर करने में हमने काफी प्रगति की है। जातीय असमानता और निम्न वर्गों को अधिकार न देने पर भी हमने लगाम लगाई है। हालांकि इस दिशा में लंबा रास्ता तय करना है। जाहिर है संपूर्ण और परिपक्व राष्ट्र निर्माण का डॉ. आंबेडकर का एजेंडा अब भी अपूर्ण ही है। 125वीं जयंती पर हमें इसे पूरा करने का संकल्प लेना चाहिए।
आंबेडकर मानते थे कि राष्ट्रीयता सामाजिक अहसास है। वह एकजुटता व एकता की सामूहिक भावना है।
आंबेडकर का स्पष्ट मत था कि जातीय व्यवस्था देशविरोधी है और राष्ट्रीयता के लिए ठीक नहीं है।
राष्ट्रीयता को साकार करना हो तो आर्थिक व सामाजिक समानता व स्वतंत्रता को प्रोत्साहन देना होगा।
No comments:
Post a Comment